विवाह एक ऐसा सामाजिक और कानूनी संबंध है, जो हर धर्म और समाज में अलग-अलग मान्यताओं और रीति-रिवाजों से जुड़ा होता है। भारत जैसे बहु-धार्मिक और विविध सांस्कृतिक देश में विवाह अधिनियम विभिन्न धर्मों और उनकी परंपराओं को ध्यान में रखते हुए बनाए गए हैं। इस लेख में हम विभिन्न धर्मों के अनुसार विवाह अधिनियमों और उनके प्रावधानों को विस्तार से समझेंगे।
धर्मानुसार विवाह अधिनियम

1. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955
अधिनियम का उद्देश्य और परिभाषा
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 का मुख्य उद्देश्य हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए विवाह के नियमों को कानूनी ढांचा प्रदान करना है। यह अधिनियम हिंदुओं के अलावा जैन, बौद्ध, और सिख धर्म के अनुयायियों पर भी लागू होता है।
अधिनियम की सीमा और लागू होने का क्षेत्र
यह अधिनियम उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो हिंदू धर्म का पालन करते हैं और भारत के अंदर तथा बाहर रहने वाले हिंदू नागरिकों पर प्रभावी है।
विवाह की आवश्यक शर्तें (Section 5)
- – दोनों पक्षों का विवाह के लिए सहमति देना।
- – वर की आयु कम से कम 21 वर्ष और वधू की 18 वर्ष होनी चाहिए।
- – दोनों पक्षों का पहले से विवाहित न होना।
- – दोनों पक्षों का मानसिक रूप से सक्षम होना।
विवाह की वैधता और अमान्यता
यदि विवाह की शर्तों का पालन नहीं किया गया, तो वह विवाह अमान्य (null and void) घोषित किया जा सकता है।
पुनर्विवाह का प्रावधान
यदि तलाक या पूर्व विवाह की समाप्ति हो चुकी हो, तो पुनर्विवाह संभव है।
विवाह विच्छेद (तलाक) के नियम
तलाक के आधार जैसे परित्याग, मानसिक और शारीरिक क्रूरता, व्यभिचार, धर्म-परिवर्तन आदि शामिल हैं।
पुनर्मिलन का प्रावधान (Judicial Separation)
अलगाव के बाद दंपत्ति पुनः साथ रह सकते हैं, यदि अदालत ऐसा आदेश दे।
2. मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) आवेदन अधिनियम, 1937
शरिया कानून की भूमिका और परिभाषा
यह कानून मुस्लिम समुदाय के विवाह, तलाक, और उत्तराधिकार को शरिया के अनुसार संचालित करता है।
निकाह (विवाह) की शर्तें और प्रक्रियाएं
- – दोनों पक्षों की सहमति।
- – गवाहों की उपस्थिति।
- – निकाहनामे में विवाह के सभी नियमों का उल्लेख।
मेहर (दहेज का प्रावधान)
पति द्वारा पत्नी को दिया जाने वाला धन, संपत्ति, या उपहार।
तलाक और ‘तीन तलाक’ का प्रावधान
‘तीन तलाक’ को भारत में असंवैधानिक घोषित किया गया है। अब तलाक अदालत की प्रक्रिया से ही संभव है।
इद्दत की अवधि और महत्व
तलाक या पति की मृत्यु के बाद महिला को एक निश्चित अवधि तक पुनर्विवाह नहीं करना होता।
पुनर्विवाह (Halala) का नियम
यदि पति-पत्नी तलाक के बाद पुनः शादी करना चाहते हैं, तो हलाala की प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक है।
3. ईसाई विवाह अधिनियम, 1872
अधिनियम का इतिहास और उद्देश्य
यह अधिनियम भारत में ईसाई समुदाय के विवाह और तलाक से संबंधित है।
विवाह पंजीकरण की प्रक्रिया
विवाह के लिए चर्च में रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है।
विवाह के लिए आयु और सहमति
- – पुरुष की उम्र 21 वर्ष तक होनी चाहिए वहीं महिला की उम्र 18 वर्ष होनी ही चाहिए।
- – दोनों पक्षों की सहमति आवश्यक है। तलाक और विवाह-विच्छेद के प्रावधान
- तलाक के लिए पति या पत्नी व्यभिचार, क्रूरता, या परित्याग का आधार ले सकते हैं।
पुजारियों और चर्च की भूमिका
विवाह चर्च के पुजारियों द्वारा पंजीकृत किया जाता है।
4. पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936
अधिनियम की परिभाषा और क्षेत्र
यह अधिनियम पारसी धर्म के अनुयायियों के विवाह और तलाक को कानूनी मान्यता प्रदान करता है।
विवाह की वैधता के लिए आवश्यक शर्तें
- – विवाह दोनों पक्षों की सहमति से होना चाहिए।
- – दोनों पक्षों का विवाहित न होना।
पारसी विवाह पंजीकरण प्रक्रिया
पारसी विवाह पंजीकरण ‘पारसी विवाह और तलाक रजिस्ट्रार’ के समक्ष होता है।
तलाक और विवाह-विच्छेद का प्रावधान
तलाक के आधार में व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, और नपुंसकता शामिल हैं।
पुनर्विवाह के नियम
पुनर्विवाह तलाक या साथी की मृत्यु के बाद ही संभव है।
5. विशेष विवाह अधिनियम, 1954
अधिनियम का उद्देश्य और महत्व
यह अधिनियम अंतर-धार्मिक या धर्मनिरपेक्ष विवाह के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है।
अधिनियम का क्षेत्र और दायरा
यह भारत में रहने वाले सभी नागरिकों पर लागू होता है, चाहे उनका धर्म कोई भी हो।
विवाह के लिए पंजीकरण की प्रक्रिया
- – दोनों पक्षों को रजिस्ट्रार के समक्ष विवाह की सूचना देनी होती है।
- – 30 दिनों के बाद विवाह पंजीकृत होता है।
धर्मनिरपेक्ष विवाह के लिए आवश्यक शर्तें
- – दोनों पक्षों का अविवाहित होना।
- – आयु सीमा का पालन।
- – मानसिक और शारीरिक रूप से सक्षम होना।
तलाक और न्यायिक पृथक्करण के प्रावधान
तलाक के लिए आवेदन न्यायालय में किया जाता है।
अंतर-धार्मिक विवाह की प्रक्रिया
दोनों पक्ष विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह कर सकते हैं।
6. आदिवासी और अन्य परंपरागत विवाह
परंपरागत रीति-रिवाजों की मान्यता
आदिवासी समुदायों में उनके रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह को कानूनी मान्यता दी जाती है।
संविधान के अनुच्छेद 244 का प्रभाव
आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष कानून और प्रावधान बनाए गए हैं।
विवाह के मान्यता और अधिकार
आदिवासी कानून उनकी परंपराओं के अनुसार विवाह को वैध मानता है।
स्थानीय कानून और अधिनियम
स्थानीय स्तर पर अलग-अलग राज्य सरकारों ने आदिवासी समुदायों के लिए विशेष अधिनियम बनाए हैं।
निष्कर्ष
भारत में धर्मानुसार विवाह अधिनियम प्रत्येक समुदाय की परंपराओं और मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए तैयार किए गए हैं। ये अधिनियम न केवल विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान करते हैं, बल्कि तलाक, पुनर्विवाह और अन्य प्रावधानों के माध्यम से समाज को एक संरचना भी प्रदान करते हैं। प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म और संबंधित विवाह कानूनों की जानकारी होनी चाहिए, ताकि वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों को सही ढंग से समझ सकें।